किराये का कमरा
एक कमरा है। वही, छोटा सा, किराये का कमरा। पता नहीं, कितने ही लोग, कितने ही परिवार उसमें रहकर चले गए। लोग- हर जाती, हर धर्म, हर शख्सियत, हर किरदार के लोग। उन सब में और हम में, प्यार तो था, पर तकरार ज़्यादा थी। कभी पानी को लेकर, कभी बिजली को लेकर, कभी कपड़े सूखने- सुखाने की जगह को लेकर। क्या करते! छोटा था न वो कमरा। ताज्जुब की बात है कि उस कमरे में रहने वाली सारी औरतें ही रहीं- कोई ब्याही, कोई बिन-ब्याही, सब अपने परिवारों से दूर। फिर एक दिन आया, जब उस कमरे में मुझे ठहरना पड़ा। इस कमरे में रहते हुए मुझे अभी कुछ हफ़्ते ही हुए हैं। यह कमरा देखने में खास सुंदर नहीं है, और इसकी दीवारें भी टूटी-फूटी सी हैं- कहीं से सीमेंट उखड़ा हुआ है, कहीं दीवारों में छोटे-बड़े छेद हैं। मगर फिर भी, मैंने इसे बहुत सहेजकर रखा है। यह कमरा उतना ही बड़ा है जितनी हमारी ज़िन्दगी- रहने की जगह तो हर किसी को मिल जाती है, मगर उसे सहेजकर रखना, यह औरतों का ही हुनर है। इस कमरे में मुझे उन सभी औरतों की हँसी की गूँज सुनाई देती है। उनकी धीमी, थकी हुई हँसी, उनके बे...