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Showing posts from August, 2025

किराये का कमरा

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एक कमरा है। वही, छोटा सा, किराये का कमरा।  पता नहीं, कितने ही लोग, कितने ही परिवार उसमें रहकर चले गए।  लोग- हर जाती, हर धर्म, हर शख्सियत, हर किरदार के लोग।  उन सब में और हम में, प्यार तो था, पर तकरार ज़्यादा थी। कभी पानी को लेकर, कभी बिजली को लेकर, कभी कपड़े सूखने- सुखाने की जगह को लेकर। क्या करते! छोटा था न वो कमरा।  ताज्जुब की बात है कि उस कमरे में रहने वाली सारी औरतें ही रहीं- कोई ब्याही, कोई बिन-ब्याही, सब अपने परिवारों से दूर।  फिर एक दिन आया, जब उस कमरे में मुझे ठहरना पड़ा।  इस कमरे में रहते हुए मुझे अभी कुछ हफ़्ते ही हुए हैं। यह कमरा देखने में खास सुंदर नहीं है, और इसकी दीवारें भी टूटी-फूटी सी हैं- कहीं से सीमेंट उखड़ा हुआ है, कहीं दीवारों में छोटे-बड़े छेद हैं। मगर फिर भी, मैंने इसे बहुत सहेजकर रखा है।  यह कमरा उतना ही बड़ा है जितनी हमारी ज़िन्दगी- रहने की जगह तो हर किसी को मिल जाती है, मगर उसे सहेजकर रखना, यह औरतों का ही हुनर है।  इस कमरे में मुझे उन सभी औरतों की हँसी की गूँज सुनाई देती है। उनकी धीमी, थकी हुई हँसी, उनके बे...

बहुत ज़रूरी है, वो पेड़

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सत्ताईस साल हो गए उसे।  सत्ताईस साल।  एक पेड़ है, ठीक मेरे कमरे की बालकॉनी के बाहर।  कितने तूफ़ान, कितनी आँधियाँ, कितनी तीखी-चिलमिलाती धूप देखी होगी उसने... ...पर फिर भी वह खड़ा हुआ है, वहीं, उसी जगह, उसी वातावरण में, उन्ही अन्य पेड़ों के बीच।  ताज्जुब की बात है कि उस पेड़ पर हर साल आम आते हैं। और हम हर साल उन रसीले आमों का लुत्फ़ उठाते हैं।   वो कहते हैं न, "पेड़ कभी खुद अपने फल नहीं खा सकता",  शायद इसीलिए उसकी जड़ें इतनी गहरी होती हैं, ताकि वो अपना सर्वस्व देने में ही जी सके, लेने में नहीं। बरसों से उसने अपनी छाँव दी, अपने फल दिए, यहाँ तक कि अपनी डालों में परिंदों का घर भी बसा लिया, पर कभी किसी से कुछ माँगा नहीं। सिर्फ खड़ा रहा, चुपचाप, सब सहते हुए। मैं अक्सर, सुबह उठ कर, अपनी बालकॉनी में जाकर, उस पेड़ के सामने खड़ी हो जाती हूँ। मेरा घर चौथे माले पर है और इस पेड़ का कद भी कुछ इतना ही है। मैं उस से कुछ ख़ास कहती तो नहीं, बस उसे देखती रहती हूँ ।  सोचती कुछ नहीं पर बहुत कुछ सोच लेती हूँ।   मुझे पता है, उससे बातें करके कोई ...